पर्वतीय लोकजीवन को चित्रित करती पुस्तक ‘मेरी यादों का पहाड़’ के लेखक देवेंद्र मेवाड़ी का किस्सागोई सत्र

पर्वतीय लोकजीवन को चित्रित करती पुस्तक ‘मेरी यादों का पहाड़’ के लेखक देवेंद्र मेवाड़ी का किस्सागोई सत्र

पर्वतीय लोकजीवन को चित्रित करती पुस्तक ‘मेरी यादों का पहाड़’ के लेखक देवेंद्र मेवाड़ी का किस्सागोई सत्र

दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की ओर से गुरुवार 21 सितम्बत की शाम को सुपरिचित विज्ञान कथाकार और किस्सागो श्री देवेन्द्र मेंवाड़ी जी का दून पुस्तकालय संस्थान के सभागार में लेखक से मिलिये का एक रोचक कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। इस कार्यक्रम में श्री देवेन्द्र मेंवाड़ी ने नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित अपनी चर्चित पुस्तक मेरी यादों का पहाड़ पर आधारित अनेक रोचक संस्मरणों का जीवन्त प्रस्तुतीकरण किया। अपनी आत्मीय और बेहद रोचक शैली में मेवाड़ी जी ने अपने बचपन से पहाड़ की यादों में को मन में बसाते हुए उस दौर के साथ आज निरन्तर बदलते उसी गांव व इलाके के भूगोल, समाज व आर्थिक परिवेश की जीती जागती तस्वीर को किस्सागोई के जरिये प्रस्तुत किया। सभागार में उपस्थित लोगों ने इस कार्यक्रम की खूब सराहना की।
देवेन्द्र मेवाड़ी जी ने पहाड़ के डाने-काने, गाड़ गधेरे, सरसराती हवा, ग्वाला जाते गाय बछियों के झुण्ड, खेतो में काम करते लोग बाग, भाबर जाते घोड़िये और अपने परिवार में ईजा बौज्यू ,ददा भाभी की अनगिनत यादों की तस्वीर एक चलचित्र की तरह श्रोताओं के सामने रखने का प्रयास किया। उनके किस्सागोई के इस सत्र में जहां पहाड के गावों में आतंक का पर्याय बने स्यूं-बाघ के रोंगटे खड़े कर देने वाले आख्यान थे वहीं स्थानीय खेती-पाती,पशुधन से जुड़ी आर्थिकी और प्रकृति से समन्वय स्थापित करते लोक समाज के अनेक चित्रात्मक प्रसंगों की नई जानकारी भी मिली। सभागार में उपस्थित हर श्रोता प्रत्यक्ष तौर पर लेखक के माध्यम से पहाड़ के पुराने लोक संसार की सैर करते दिखे।
कार्यक्रम के प्रारम्भ में दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र के सलाहकार प्रों बी. के.जोशी ने देवेन्द्र मेवाड़ी जी का स्वागत करते हुए उनका आभार प्रकट किया और कहा कि उनकी किस्सागोई शैली को अद्भुत और रोचक है जो पाठकों के मन को अंदर तक छू लेने में सक्षम है। उन्होनें कहा कि अपने समाज और भूगोल के परिदृश्य का गहराई से जानने समझने के लिए इस तरह की किस्सागोई शैली एक कारगर संप्रेक्षण विधा के तौर पर सामने आती है। मेरी यादों का पहाड़ को महत्वपूर्ण दस्तावेज बताते हुए उन्होनें पुस्तकाकार रुप में पाठकों तक पहुंचाने के लिए देवेन्द्र मेवाड़ी को साधुवाद दिया।
कार्यक्रम में लेखक ने अपने बचपन के संस्मरण का सजीव चित्रण किया ।उनके जीवन पर उनकी माता का सबसे अधिक प्रभाव रहा।लेखक अपनी माता को अपनी प्रथम शिक्षक मानते है । कठिन परिस्थितियों में लेखक का बचपन बीता ।
हमारा समाज विविधताओं से भरा है, उतनी ही अनोखी हैं, हर क्षेत्र की लोकसंस्कृति व लोकपरम्पराऐं. कमोवेश प्रत्येक लोकजीवन की अपनी-अपनी विशिष्टताऐं होती हैं,लेकिन जब पहाड़ के लोकजीवन की बात आती है तो यहॉ की विषम भौगोलिक परिस्थिति, नागरिक सुविधाओं का अभाव तथा देवभूमि की अपनी मान्यताऐं, परम्पराऐं व आस्थाऐं लोकजीवन को ज्यादा दिलचस्प बना देती हैं।
लोकजीवन को नजदीक से समझने का सबसे अच्छा तरीका है- यायावरी. खूब घूमो और लोकजीवन का नजदीक से अवलोकन व अध्ययन करो. लेकिन व्यस्त जीवन में यह हर किसी के लिए संभव नहीं. यह भी कि यायावरी में आप कितना कुछ देख पाओगे? लोकजीवन के कोई एक-दो-चार पहलू, बस. हॉ, किसी पुस्तक के माध्यम से लोकजीवन व लोकसंस्कृति के वितान को अधिक समझा व जाना जा सकता है. लेकिन लोकजीवन में झांकने का आनन्द तब दोगुना हो जाता है, जब कोई पुस्तक ही आपको दृश्य-श्रव्य का जीवन्त अनुभव करा दे और लगे कि आप जो पढ़ रहे हैं उसे मन की ऑखों से देखने व कानों से सुनने का भी साथ-साथ अहसास कर रहे हैं. अपने बचपन के मासूम अनुभवों के बहाने इसमें आपको पहाड़ी लोकजीवन का वह समग्र रूप देखने को भी मिलेगा, जो किसी एक किताब में एक साथ मिल पाना संभव नहीं. जिन्होंने पहाड़ का जीवन स्वयं जिया है उन्हें तो यह अन्दर तक गुदगुदायेगी ही लेकिन जिन्होंने पहाड़ को देखा तक नहीं उन्हें पहाड़ के लोकजीवन व लोकसंस्कृति को बारीकी से जानने व समझने का मौका भी मिलेगा.
कार्यक्रम में देवेंद्र मेवाड़ी ने आत्मकथात्मक शैली में बड़ी बेवाकी व साफगोई से अपने बचपन की छोटी से छोटी घटनाओं के माध्यम से न केवल अपने समग्र व्यक्तित्व को उघाड़कर रखा अपितु अपने साथ-साथ स्मृतियों के सहारे पहाड़ के ग्रामीण जनजीवन को हू-ब-हू कैनवास पर उतार कर रखा। बचपन का वह गांव का जीवन और बाद में महानगर में 40-50 साल के अन्तराल और लेखक द्वारा भ्वैन, लोकगीतों व जागरों के बोलों याद कर जस का तस वर्णन कर देना और पशु-पक्षियों की अलग-अलग आवाज का शब्दांकन करना सचमुच में लेखक की खासियत रही।लेखक ने अनुरोध किया कि 70वर्ष पूर्व का पहाड़ अनेक परेशानी के बाद भी पर्यावरणीय दृष्टि से संपन्न था लेकिन आज कंक्रीट के जंगल ने इसका स्थान ले लिया ।युवा पीढ़ी से उन्होंने आह्वान किया की पहाड़ को पहले की तरह संवारकर रखने और पेड़ डालियों से भरे रखने की आवश्यकता है।
उल्लेखनीय है कि विगत 5 दशकों से अधिक वर्षों से देवेन्द्र मेवाड़ीे विज्ञान और साहित्य दोनों लिखते आ रहे हैं। इनका जन्म उत्तराखंड के नैनीताल जिले में ओखलकांडा में सन् 1944 में हुआ । वरिष्ठ लेखक तथा विज्ञान कथाकार श्री देवेंद्र मेवाड़ी उन विरल साहित्यकारों में से हैं जो विज्ञान और साहित्य दोनों क्षेत्रों से अभिन्न और आत्मीय रूप से जुड़े हैं। एक ओर जहां वे विगत पचास वर्षों से भी अधिक समय से आमजन के लिए विज्ञान लिख रहे हैं, वहीं दूसरी ओर अपनी विज्ञान कथाओं और मार्मिक संस्मरणों से साहित्यिक रचनाधर्मिता में सक्रिय हैं। इनके आत्मकथात्मक संस्मरण मेरी यादों का पहाड़ ने जहां एक बड़े पाठक वर्ग के हृदय को स्पर्श किया है, वहीं उनके दीर्घकालीन सक्रिय विज्ञान लखन ने समाज में विज्ञान की जागरूकता फैलाने में अपूर्व योगदान दिया है। श्री मेवाड़ी ने कई विज्ञान पत्रिकाओं और वैज्ञानिक पुस्तकों का संपादन और अनुवाद भी किया है। प्रिंट मीडिया के अलावा इन्होंने रेडियो-टेलीविजन जैसे इलैक्ट्रॉनिक मीडिया और डिजिटल मीडिया के लिए भी निरंतर स्तरीय विज्ञान लेखन किया है।
श्री मेवाड़ी साहित्य की कलम से विज्ञान लिखते हैं, उनका लिखा विज्ञान सरस होता है और आमजन को किस्से-कहानी की तरह रोचक लगता है। इन्होंने विविध शैलियों में विज्ञान लेखन किया है ताकि पाठकों तक हर संभव लेखन शैली में विज्ञान पहुंच सके। लेखन के इन प्रयोगों को इनकी इन प्रमुख कृत्तियों में बखूबी देखा जा सकता है। स्तरीय विज्ञान लेखन के लिए इन्हें अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है इनमें केन्द्रीय साहित्य अकादमी बाल साहित्य पुरस्कार (2021), वनमाली विज्ञान कथा सम्मान (2021) केन्द्रीय हिंदी निदेशालय (मानव संसाधन मंत्रालय), नई दिल्ली का पुरस्कार (2018) उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ का राष्ट्रीय स्तर का विज्ञान भूषण सम्मान (2017) आदि पुरस्कार आदि शामिल हैं।
आज के इस कार्यक्रम का संचालन दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र के प्रोग्राम एसोसिएट चन्द्रशेखर तिवारी ने किया। इस दौरान शोध सहायक सुन्दर सिंह बिष्ट, विजय भट्ट, सुरेंद्र सजवाण, मन मोहन चौहान, अरुण असफल,सत्यानन्द बडोनी, जितेंद्र भारती डॉ.मुनिराम सकलानी, कमलापंत सहित अनेक पर्यावरण प्रेमी, प्रबुद्ध लोग, पुस्तक प्रेमी, साहित्यकार, लेखक, पाठक सहित दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र के युवा पाठक व सदस्य उपस्थित थे।