“उत्तराखण्ड में राष्ट्रीय संग्राम की झलक”  :  प्रोफे. शेखर पाठक का व्याख्यान

“उत्तराखण्ड में राष्ट्रीय संग्राम की झलक”  :  प्रोफे. शेखर पाठक का व्याख्यान

सुपरिचित सामाजिक इतिहासकार व लेखक प्रोफे. शेखर पाठक  द्वारा आज सायं ‘उत्तराखण्ड में राष्ट्रीय संग्राम की झलक‘ विषय पर एक व्याख्यान  दिया गया। दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की ओर से आयोजित यह व्याख्यान कई अर्थों में विशिष्ट रहा। प्रो. शेखर पाठक ने अपने धाराप्रवाह वक्तव्य और दुर्लभ स्लाइड शो से उत्तराखण्ड के राष्ट्रीय संग्राम से जुड़े कई महत्वपूर्ण पक्षों पर विश्लेषणात्मक प्रकाश डाला। कार्यक्रम से पूर्व दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के सलाहकार प्रो.बी के जोशी ने सभागार में उपस्थित लोगों का आभार व्यक्त किया। प्रो. जोशी ने डॉ. शेखर पाठक को उत्तराखण्ड के चलते फिरते ऐतिहासिक व सामाजिक एनसाइक्लोपीडिया की संज्ञा प्रदान कर उनके इस क्षेत्र में दिए गए योगदान को महत्वपूर्ण करार दिया।

दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के सभागार में आयोजित इस व्याख्यान में प्रोफे.पाठक ने विस्तार से बताया कि उत्तराखंड के स्थानीय आन्दोलन राष्ट्रीय संग्राम से किस तरह जुड़ने के आधार बने थे। राष्ट्रीय संग्राम की विभिन्न अभिव्यक्तियों में प्रमुख तौर पर 1857 की क्रांति, पेशावरकांड तथा आजाद हिन्द फौज में हिस्सेदारी के क्या खास अर्थ रहे इस बिंदु पर भी सम्यक बात रखी। उत्तराखण्ड से बाहर यहां के कार्यकर्ताओं व नेताओं के योगदान की भूमिका पर भी उन्होंने प्रकाश डालने का प्रयास किया। इस व्याख्यान में उत्तराखंड के अनेक संग्राम नायकों व स्वाधीनता संग्राम में तत्कालीन अनेक समाचार पत्रों के योगदान का भी जिक्र किया गया। उत्तराखंड जैसे इस छोटे से इलाके ने कैसे अपनी बड़ी हिस्सेदारी राष्ट्रीय संग्राम में दी और इसकी विकास यात्रा का मिजाज कैसा रहा इस पक्ष को भी प्रोफे. शेखर पाठक ने उजागर करने का प्रयास किया।

प्रोफे. शेखर पाठक ने विभिन्न तथ्यों व शोध कार्यों के आधार पर बताया कि उत्तराखण्ड में औपनिवेशिक शासन तथा सामाजिक संघर्ष को ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में प्रस्तुत करने के प्रयास किये गये। उन्होने बताया कि राष्ट्रीय संग्राम में उत्तराखण्ड की हिस्सेदारी से तीन मुख्य बिन्दुओं का उल्लेख किया। इनमें पहला सवाल उत्तराखण्उ के समाज की विशिष्ट वर्ग संरचना का था और दूसरा ब्रिटिश काल में उत्तराखण्ड के  टिहरी रियासत व ब्रिटिश कुमाऊं नाम के दो भिन्न सामाजिक-राजनैतिक ढांचे में विभक्त होना था। जबकि तीसरा बिंदु क्षेत्रीय प्रतिरोधों और व्यापक राष्ट्रीय आन्दोलनों के अन्र्तसम्बन्धों से जुड़ा हुआ था। प्रोफे. शेखर पाठक ने अपने व्याख्यान में उत्तराखण्ड के राष्ट्रीय संग्राम में अनेक नायकों यथा  बद्री दत्त पाण्डे, मोहन सिंह मेहता, अनुसूइया प्रसाद बहुगुणा, जयानंद भारती, हरगोविन्द पंत, मुकुन्दी लाल, नरदेव शास्त्री,  मोहन जोशी, गोविन्द बल्लभ पंत, पीसी जोशी, श्री देव सुमन ,शर्मदा त्यागी व नागेन्द्र सकलानी समेत अनेक संग्रामियों के योगदान को उल्लेखनीय बताया। तत्कालीन समाचार पत्रों अल्मोड़ा अखबार, गढ़वाली, शक्ति, स्वाधीन प्रजा, कर्मभूमि व युगवाणी सहित अन्य पत्रों की भूमिका व उनके योगदान को भी रेखांकित किया।

उल्लेखनीय है कि प्रोफे. पाठक ने 3 दशकों से अधिक समय तक कुमाऊं विश्वविद्यालय में  अध्यापन कार्य किया है। वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला और  नेहरू मेमोरियल संग्रहालय एवं पुस्तकालय, नई दिल्ली के फेलो रह चुके हैं। उन्होंने हिमालय के इतिहास, संस्कृति, लोक कथा और हिमालयी अन्वेषण के विभिन्न पहलुओं पर काम किया है। कुली बेगार प्रणाली, वन आंदोलन, उत्तराखंड की भाषाएं, हिमालयी इतिहास और खोजकर्ता नैन सिंह रावत की निश्चित जीवनी पर उनके काम प्रसिद्ध हैं। वह अस्कोट आराकोट अभियान, अन्य हिमालयी अध्ययन यात्राओं से जुड़े हुए हैं। वर्तमान में नैनीताल से प्रसिद्ध श्पहाड़श् पत्रिका का संपादन करते हैं।  प्रोफे.शेखर पाठक 2006 में  पद्मश्री और 2007 में राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं। उन्हें वर्ष 2022 में चिपको मूवमेंटः ए पीपल्स हिस्ट्री, पुस्तक के लिए कमला देवी चट्टोपाध्याय पुरस्कार मिल चुका है।

 व्याख्यान के बाद इस विषय पर उपस्थित लोगों ने अनेक सवाल-जबाब भी किये। इस अवसर पर सभागार में,पद्मश्री कल्याण सिंह रावत, डॉ.हर्षवन्ति बिष्ट, डॉ.अतुल शर्मा, बिजू नेगी, डॉ. मालविका चौहान, विजय भट्ट, अरुण कुमार असफल, सुंदर बिष्ट, निकोलस हॉफ़लैंड और  चंद्रशेखर तिवारी, सहित अनेक इतिहास प्रेमी, सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्विजीवी, साहित्यकार, साहित्य प्रेमी और दून पुस्तकालय के सदस्य व अनेक युवा पाठक उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संचालन डॉ.योगेश धस्माना ने किया।