प्रकृति,खेती-बाड़ी और समाज से जुड़ा  लोक पर्व है : हरेला

प्रकृति,खेती-बाड़ी और समाज से जुड़ा लोक पर्व है : हरेला

दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र की ओर से अपने कार्यक्रमों की श्रृंखला में आज उत्तराखण्ड के लोक पर्व हरेला पर विविध कार्यक्रम आयोजित किये गये उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों विशेषकर कुमाऊं अंचल में हरेला मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है उमंग और उत्साह के साथ मनाये जाने वाले इस पर्व को ऋतु उत्सवों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। हरेला पर्व सौरमास श्रावण के प्रथम दिन यानि कर्क संकान्ति को मनाया जाता है। परम्परानुसार हरेला पर्व से नौ अथवा दस दिन पूर्व पत्तों से के दोनों या रिंगाल की टोकरियों में पांच, सात अथवा नौ प्रकार के धान्य बीजों को बोकर घर के देवस्थान में रखा जाता है। हरेला पर्व के दिन टोकरियों में उगे इन हरेले के तृणों को काटकर देवताओं को चढ़ाने के बाद बाद घर-परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर रखा जाता है। इस दौरान सयानी महिलाएं अशीष के आंखर भी देती है हरेले के दिन विविध पहाड़ी व्यंजन यथा बड़े पूर्वे, पूरी, खीर आदि बनाये जाते हैं और पास-पड़ोस में प्रेम से इन्हें एक दूसरे के यहां बांटने की परम्परा है।
संस्थान के सभागार में आयोजित कार्यक्रमों के तहत एक विचार गोष्ठी भी रखी गयी। इसमें कुमाउनी भाषा व संस्कृति की विशेषज्ञ श्रीमती कमला ने पर्वतीय खेती-बाड़ी और स्थानीय पर्यावरण पृष्ठभूमि में हरेला पर्व के औचित्य व उसकी प्रासंगिकता को विस्तार से रेखांकित किया। अपने वक्तव्य में श्रीमती पंत ने कहा कि हरेला पर्व सीधे तौर पर प्रकृति के साथ जुड़कर समन्वय बैठाने की भूमिका में नजर आता है। मानव समाज के तन-मन में हरियाली हमेशा से ही प्रफुल्लता का भाव संचारित करती रही है। उन्होंने कहा कि हरेला पर्व लोक विज्ञान और जैव विविधता से भी सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। हरेला बोने की प्रक्रिया को एक तरह से बीज परीक्षण के रूप में देखा जा सकता है। इससे यह सहज अनुमान लग जाता है आगामी फसल कैसी होगी। हरेले में मिश्रित बीजों के बोने की परम्परा भी मिश्रित खेती पद्धति के महत्व को भी दर्शाती है।
साहित्यकार व लोक संस्कृतिविद डॉ. नन्दकिशोर हटवाल ने हरेला पर्व के सामाजिक व सांस्कृतिक महत्व पर गहन प्रकाश डाला। उन्होने कहा कि मानव के तन-मन में हरियाली हमेशा से ही प्रफुल्लता का भाव संचारित करती आयी है। परिवार व समाज में सामूहिक और एक दूसरे की भागीदारी से मनाये जाने वाला यह लोक पर्व सामाजिक समरसता और एकता का भी प्रतीक है। हरेला पर्व में लोक कल्याण की एक महान अवधारणा निहित है ऐसे में निश्चित तौर पर लोक के बीच मनाया जाने वाला यह पर्व हमें प्रकृति व समाज के करीब आने का सार्थक संदेश देता है।
विचार गोष्ठी में श्री नरेन्द्र नेगी ने हरेला को उत्तराखण्ड के समाज और संस्कृति का एक बड़ा पर्व बताया और कहा कि हिमालय के परिवेश में हरेला पर्व सामूहिक एकता का प्रतीक है। नेगी ने हरेले के पर्यावरणीय उपादेयता पर भी सार्थक जानकारी दी। उन्होंने ठंडो रे ठंडो पहाड़ कि हवा… गीत गाकर श्रोताओं को झूमने को मजबूर कर दिया।
दूसरे सत्र के अंतर्गत लोकगीत व संगीत के विविध कार्यक्रम हुए। जिसमें रामचरण जुयाल ने अपनी संगीत की प्रस्तुति दी। वरिष्ठ कुमाउनी कवि श्री गोपाल सिंह बिष्ट ने अपनी कविताओं के माध्यम से पहाड़ की संस्कृति और रितिरिवाज से जुड़े प्रसंगों को सुनाया। श्री सुरेन्द्र कोहली व श्रीमती अर्चना सती ने भी पहाड़ के जनजीवन व हरियाली से संबंधित कई लोकगीतों की बेहतरीन प्रस्तुति दी। श्रीमती शोभा पांडे ने भी कविता पाठ किया जिसे श्रोताओं ने खूब सराहा कार्यक्रम से पूर्व श्रीमती भारती पाण्डे व श्रीमती कमला पंत ने मंगल गीत व अंत में हरेले के आशीष के आंखर भी गाये। हरेले के इस कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध लोकगायक व संगीतकार गढ़रत्न श्री नरेंद्र सिंह नेगी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थिति रहे। कार्यक्रम का संचालन श्री बिजू नेगी ने किया। धन्यवाद ज्ञापन दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र के प्रोग्राम एसोसिएट श्री चन्द्रशेखर तिवारी ने दिया।
इस दौरान देहरादून के अनेक लेखक, साहित्यकार और संस्कृति प्रेमी, पुस्तकालय के युवा पाठक सहित अतुल शर्मा, मदन बिष्ट, मदन डुकलान,रविन्द्र जुगरान, ज्योतिष घिल्डियाल,सुंदर सिंह, गामा चन्द, जगदीश सिंह महर, हैरी शेट्टी और अनेक लोग उपस्थित रहे।
कार्यक्रम के बाद लोगों ने दून पुस्तकालय की ओर से बड़े, पूवे अरसे व पत्यूड जैसे परम्परागत पहाड़ी कल्यो (व्यंजनों) का स्वाद भी लिया।