लोक से उपजे विशिष्ट  कवि थे जिवानन्द श्रीयाल -सोमवारी लाल उनियाल

लोक से उपजे विशिष्ट  कवि थे जिवानन्द श्रीयाल -सोमवारी लाल उनियाल

देहरादून, 12 जनवरी,2024। दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की ओर से संस्कतृ छंदों में गढ़वाळी काव्य के रचियता यथार्थवादी कवि जिवानंद श्रीयाल की 98 वीं जयंती के अवसर पर उनके लेखन पर चर्चा- विमर्श हुआ। वक्ता और कार्यक्रम के संयोजक गजेंद्र नौटियाल ने लोककवि के जीवन पर प्रकाश डालते हुए बताया कि 12 जनवरी 1926 टिहरी जिले के जखन्याली गांव में जन्मे, पिता टिहरी राजा के पटवारी पद पर थें मगर जब वे 8 वर्ष के थे तब पिता और जब 9 वर्ष के थे तब माता जी की मृत्यु हो गई। ताउ जी के नैलचामी गाड़ और आसपास ढोर-डंगर चराते हुए पलते-बढ़ते जिवानंद ने भैंस की पीठ और नदी कीरेत पर आखर ज्ञान लिया। परिवार में संस्कृत छंदो से प्रभावित होकर उन्होंने अपनी खैरी-बिपदाओं, दुखों से सीखते हुए 21 वें वर्ष में पहली कविता लिखी जो संस्कुत छंद में थी। श्रीयाल जी ने संस्कृत के 24 से ज्यादा छंदों में 300 से ज्यादा कवितांए लिखीं। यथार्थ वादी और आशुकवि तो कभी वे अपनी कविताओं में लोकजीवन के विरोधाभाषों को उकेतरते विद्रोही कवि के रुप में सामने आते हैं। ‘‘द्यौ देवता भि जपदा जग को सहारो, संसार मां जनम हो भगवन हमारो। ’’बसंत तीलिका छंद, ‘‘दुन्यां बणौण वाळु धन्य जैन या करी चिंणै’’ पंच्चचामरी छंद और स्त्राग्विणी छंद पर ‘‘ देवी देबतौं को बास भी, पूरी करदीन जो भक्तु कि आस भी’’ आदि कविताओं का सस्वर पाठ किया । कार्यक्रम के वक्ता डॉ. योगेश धस्माना ने कहा कि जिवानंद श्रीयाल ने ठेठ संस्कृत छंदों में गढ़वाल के लोकजीवन के विभिन्न पहलुओं को लेखन के साथ वाचन में सामने लाया। ऐसे अनोखे रचनाकार को राष्ट्रीय स्तर पर परिभाषित किए जाने और पाठ्यक्रमों में स्थान दिलाने के लिए सरकार को प्रयास करने चाहिए। डॉ. अम्बरीष चमोली ने जिवानंद श्रीयाल की कविताओं की समीक्षा करते हुए उनकी संस्कृत छंदों में स्वरचित कविताओं का सस्वर पाठ किया।

संगीतकार प्रीतम भरतवाण ने कहा कि लुप्त होते संस्कृत छंदों को गढ़वाली भाषा में रेखांकित कर श्रीयाल जी ने ऐतिहासिक कार्य किया जिसे लोक भाषाओं के विकास में स्थान मिलने के पुरजोर प्रयास किए जाने चाहिए।

कार्यक्रम के अध्यक्ष, सम्पादक और साहित्यकार सोमवारी लाल उनियाल ने कहा कि जिवानंद श्रीयाल के लेखन से उनके दौर के समाज तब भी प्रेरणा पाते थे जो उसी रूप में आज भी उनका साहित्य उतना ही प्रासंगिक ठहरता है। जीवन की जीवटता का संदेश जो श्रीयाल की रचनाओं में हैं वह वाकई अनुकरणीय है।

कार्यक्रम का संचालन  लोक साहित्यकार गणेश खुगशाल ‘गणी’ ने किया। दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के प्रोग्राम एसोसिएट चंद्रशेखर तिवारी ने अपने स्वागत और धन्यवाद भाषण में कहा कि मासिक साहित्यिक संगोष्ठियों में वर्ष 2024 का  यह पहला कार्यक्रम रहा जो पूरी तरह स्थानीय बोली-भाषा में चला और  लोक के चितेरे व संस्कृत छंदों के मर्मज्ञ  गढ़ कवि जिवानंद श्रीयाल के व्यक्तित्व व रचनाकर्म  पर केंद्रित रहा ।

इस अवसर पर अनेक लेखक,लोक साहित्यकार, पत्रकार,  बुद्धिजीवी व अनेक युवा पाठक उपस्थित रहे।