‘भाषाई सभ्यता के रूप में भारत का विकास’ विषय पर गणेश एन. देवी का व्याख्यान
देहरादून, 8 फरवरी, 2024। दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र की ओर से आज आज सायं 4:00 बजे संस्थान के सभागार में कीर्तिशेष सुरजीत दास की स्मृति में प्रथम व्याख्यान माला का आयोजन किया गया। देश के सुपरिचित भाषविद और लेखक, प्रो. गणेश एन देवी का एक आयोजन किया गया। प्रो. गणेश एन. देवी ने ‘भाषाई सभ्यता के रूप में भारत का विकास’ विषय पर अपना गहन और महत्वपूर्ण व्याख्यान दिया।
शुरूआत में दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र के निदेशक श्री एन.रविशंकर ने स्वागत सम्बोधन और संस्थान का परिचय दिया और शॉल ओढ़ाकर प्रो.गणेश देवी का स्वागत किया। निदेशक श्री एन.रविशंकर ने प्रो.देवी का परिचय देते हुए सुरजीत दास द्वारा पुस्तकालय के निर्माण में दिए योगदान को रेखांकित किया और कहा कि उनकी स्मृति में अब प्रति वर्ष दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र और सुरजीत दास के पारिवारिक जनों की ओर से उनके जन्म दिन पर व्याख्यान माला का आयोजन किया जाएगा।
उल्लेखनीय है कि स्व.सुरजीत किशोर दास दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के संस्थापकों और मार्गदर्शक निर्देशकों में से एक थे। इस संस्थान को गतिमान बनाये रखने में उनकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। एक कुशल,कर्मठ व ईमानदार प्रशासनिक अधिकारी रहते हुए पूर्व में सुरजीत किशोर दास उत्तरप्रदेश व उत्तराखण्ड में अनेक पदों पर अपनी सेवाएं दीं हैं। अपने सेवाकाल के अंतिम दौर में उन्होंने उत्तराखण्ड के सर्वोच्च प्रशासनिक पद में मुख्य सचिव का दायित्व भी कुशलता से निभाया। सुरजीत दास को हर तरह के ज्ञान को संचित करने और सब लोगों के मध्य इस ज्ञान को उदारतापूर्वक साझा करने में बहुत खुशी होती थी।
मंचासीन लोगों ने कहा कि आशा की जानी चाहिए कि यह स्मृति व्याख्यान विशिष्ट कार्य क्षेत्रों के विशेषज्ञों के विचार और उनके अनुभवों को साझा करने का मंच प्रदान करेगा । कार्यक्रम में प्रो.गणेश एन देवी ने कहा किमानव प्रजातियां पिछले 70,000 सालों से जटिल भाषाओं का प्रयोग करती आ रहीे हैं। ऐसे में, भारत के इतिहास में मौलिक युगान्तर परिवर्तनों को समझने के लिए सबसे सही तरीका होगा इस बात का परिक्षण करना कि भारत अपनी भाषाओं के साथ क्या करता आया व स्वयं भाषा भारत को किस तरह पुनः गढ़ती रही।
उन्होंने आगे कहा कि 1786 में, सर विलियम जोंस (1746-1794) ने अपनी सर्वाधिक महत्वपूर्ण टीका दुनिया के समक्ष प्रस्तुत की, जब उन्होने संस्कृत, यूनानी व लातिन भाषाओं को एक ही वंशज का बताया और यह भी कि वे तीनों स्वयं गाॅथिक व कैल्टिक (दोनों जर्मन) भाषाओं तथा फारसी से भी संबंधित हो सकती हैं। उनके इस कथन में एक पुरानी ‘‘आद्य-इंडो-यूरोपीय भाषा’’ के होने का संकेत था।
पश्चिमी संज्ञानात्मक श्रेणियों के सुसंगत ज्ञान तथा प्रमुखतः मौखिक समुदायों के जीवन से जुड़ी ज्ञान परम्पराओं के बीच सहयोग व द्वंद आज भी भारत में कल्पनाशील परिवर्तन को उद्वेलित तथा बौद्धिक चुनौती पेष करता है जिससे चिंतकों को इक्कीसवीं शताब्दी में जूझना होगा।
प्रो.गणेश देवी ने अपने व्याख्यान में आगे कहा कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में, भाषाई मुद्दे पर सार्वजनिक पहल सर्वप्रथम 1927 में हुई जब कांग्रेस ने भाषाई राज्यों की स्थापना पर प्रस्ताव पारित किया। यह भारत राष्ट्र में अंततः जुड़ने वाले इलाकों की भाषाई पहचान को संरक्षित करने की जरूरत की स्पष्ट स्वीकारोक्ति थी। 1928 में जाॅर्ज ग्रियरसन के व्यापक भारतीय भाषाई सर्वेक्षण का समापक प्रकाशन हुआ जिसमें 189 भाषाओं का विस्तृत ब्यौरा था और कुछ सैकड़े अन्य जिन्हे उन्होने ‘‘बोली’’ माना। यह जानने के लिए कि क्या भाषाई राज्य एक सक्षम विचार होगा कि नहीं, 1948 में डा राजेन्द्र प्रसाद द्वारा एक समिति गठित की गई और एक अन्य, उस प्रस्ताव की जांच करने के लिए। अंततः 1955 में एक राज्य पुनर्गठन आयोग नियुक्त किया गया, जिसकी सिफारिश पर भाषा को राज्य की पहचान को मूल में रखते हुए कुछ राज्यों का सर्जन किया गया। 1961 की जब जनगणना की गई तो भारत की जनता ने 1652 भाषाओं को अपनी मातृ-भाषा के तौर पर दर्ज किया। संविधान की आठवीं अनुसूचि में विषेषतः नामित भाषाओंः अनुसूचित भाषाओं के तौर पर 14 भाषाएं रखी गयीं। वर्तमान में यह संख्या 22 हो गयी है।
बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि ऐसा नही है कि भाषा के मुद्दे में अड़चनें नहीं है। इसलिए मेरा मानना है कि सरकारी मशीनरी द्वारा नहीं बल्कि भारत के लोक को सम्मिलित कर भारतीय भाषाओं की उनकी उचित सामाजिक व्याख्या के साथ पुनः गणना किया जाना अत्यंत जरूरी है जिससे कि भारत को भाषाई आधार पर विखण्डित होने से बचाया जा सके।
उल्लेखनीय है कि गणेश.एन. देवी एक सांस्कृतिक कार्यकर्ता, साहित्यिक आलोचक और अंग्रेजी के पूर्व प्रोफेसर हैं। उन्हें पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया और उनके द्वारा बनाई गई आदिवासी अकादमी के लिए जाना जाता है। उन्होंने बड़ौदा में भाषा अनुसंधान एवं प्रकाशन केंद्र की स्थापना की। वह तीन भाषाओं – मराठी, गुजराती और अंग्रेजी में लिखते हैं। अंग्रेजी में उनकी पहली पूर्ण पुस्तक आफ्टर एम्नेशिया (1992) है। तब से उन्होंने साहित्यिक आलोचना, मानव विज्ञान, इतिहास, शिक्षा, भाषा विज्ञान और दर्शन के क्षेत्रों में एक सौ बारह पुस्तकें लिखी और संपादित की हैं। 2014 में उन्हें पद्मश्री मिला।
कार्यक्रम में एन .रवि.शंकर,एन एस नपलच्याल,कर्नल विजय कुमार दुग्गल, कर्नल एस एस रौतेला, गीता सहगल, निकोलस हॉफलैण्ड, चंद्रशेखर तिवारी, सुंदर सिंह बिष्ट,योगिता थपलियाल, जगदीश सिंह महर,मीनाक्षी कुकरेती,भारद्वाज सहित अनेक बुद्धिजीवी, लेखक, साहित्यकार, भाषविद, पुस्तकालय के सदस्य आदि उपस्थित रहे।
कार्यक्रम का सफल संचालन गांधीवादी विचारक बिजू नेगी ने किया।कार्यक्रम के अंत में उपस्थित श्रोताओं ने सवाल-जबाब भी किये ।
कार्यक्रम में एन .रवि.शंकर, इंदु कुमार पांडे,एन एस नपलच्याल, डॉ.योगेश धस्माना, कर्नल विजय कुमार दुग्गल,डॉ इन्दु सिंह, मालविका चौहान, चंद्रशेखर तिवारी, सुरेंद्र सजवाण, डॉ. नंदकिशोर हटवाल, जे एस पांडे, जितेंद्र नौटियाल कर्नल एस एस रौतेला, गीता सहगल, निकोलस हॉफलैण्ड, सुंदर सिंह बिष्ट, योगिता थपलियाल, जगदीश सिंह महर,मीनाक्षी कुकरेती,भारद्वाज सहित अनेक बुद्धिजीवी, लेखक, साहित्यकार, भाषविद, पुस्तकालय के सदस्य आदि उपस्थित रहे।