उत्तराखंड के दलित समुदाय के सामाजिक और कानूनी मुद्दे
शनिवार 10 जून को दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र में उत्तराखंड के दलित समुदाय के सामाजिक और कानूनी मुद्दे विषय पर अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 और इसके क्रियान्वयन में आने वाली चुनौतियों पर एक कार्यक्रम आयोजित हुआ । इस कार्यक्रम की अध्यक्षता साहित्यकार प्रो. राजेश पाल ने की तथा कार्यक्रम में मुख्य अतिथि वरिष्ठ अधिवक्ता सुनील कुमार एवं विशिष्ठ अतिथि सामाजिक कार्यकर्ता दीपा कौशलम रही, कार्यक्रम की प्रस्तुति दलित एक्टिविस्ट जबर सिंह वर्मा द्वारा की गई।
वक्ताओं ने इस सार्थक चर्चा में उत्तराखण्ड के परिवेश में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समाज की स्थिति, सामाजिक-आर्थिक स्तर से जुड़े प्रश्नों के साथ एस. सी.एस. टी. अधिनियम और धरातल पर उसके कार्यान्वयन में आने वाली विविध तरह की चुनौतियों के बारे में विमर्श किया गया।
उपस्थित विशेषज्ञों ने इस सन्दर्भ में विविध मुद्दों पर महत्वपूर्ण विचार व्यक्त करते हुए कहा कि दलितों पर अत्याचार कोई नई घटनाएं नहीं है लेकिन स्वतंत्र भारत में संविधान में दलितों पर अत्याचार को रोकने के लिए 1989 में अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम बनाया गया जिससे कि दलितों पर अपराधों के संबंध में मुकदमा चलाने और दंड देने से लेकर पीड़ितों को राहत एवं पुनर्वास देने का प्रावधान किया गया है हमारे देश में कानून तो बहुत हैं लेकिन समस्या सामाजिक मूल्यों की हैं आज भी सामंती मानसिकता के कारण ऊंची जाति के लोग दलितों को मनुष्यों का और बराबरी का दर्जा देने के लिए तैयार नहीं है यद्यपि समाज में परिवर्तन हो रहा है लेकिन यह परिवर्तन बहुत धीमा है इसमें जिन संस्थाओं की अत्याचार रोकने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए उनमें मीडिया पुलिस न्याय व्यवस्था सभी जगह सोचने का तरीका अभी तक पूरी तरह बदला नहीं है और वह भी पक्षपात करता नजर आता है दलितों पर अत्याचार के विषय में उत्तराखंड राज्य भी अछूता नहीं है यहां भी हर रोज कहीं ना कहीं दलित अत्याचार की घटनाएं होती रहती हैं और बहुत सारी घटनाएं तो अखबारों में स्थान भी नहीं पाती हैं दलितों पर होने वाले अत्याचार के मामले में पुलिस में भी एफ आई आर दर्ज नहीं होती है फिर भी अनुमानतः उत्तराखंड में हर वर्ष लगभग 300 घटनाएं घटित हो रही हैं जिसमें दलितों पर कहीं ना कहीं अत्याचार होता है यूं तो उत्तराखंड को गर्व अनुभूति के रूप में देवभूमि कहा जाता है लेकिन देवभूमि से गौरवान्वित होने वाले लोग यह नहीं जानते कि उत्तराखंड में हिमालय की काली परछाइयां भी हैं उन काली परछाइयों के तले दलितों पर घोर अमानवीय अत्याचार घटित होते रहे हैं चाहे 1980 में कफल्टा हत्याकांड हो यह चंपावत के सूखीढांग में दलित भोजन माता सुनीता देवी पर सामाजिक भेदभाव का मामला हो या भिकियासैण में अंतरजातीय विवाह करने वाले जगदीश चंद्र की हत्या जौनसार के पुनहा मंदिर में प्रवेश का मामला हो या आटा चक्की छूने पर सिर कलम की घटना या जौनपुर के जितेंद्र का कुर्सी पर बैठकर सवर्णों के सामने भोजन करने का मामला हो यह सब घटनाएं इसी देवभूमि में घटित होती हैं जो मनुष्यता को शर्मसार करती हैं तथा मनुष्य को मनुष्य के गरिमा से जीने से वंचित करती हैं हमारी न्याय प्रदान करने वाली संस्थाएं भी कहीं ना कहीं सामंती मानसिकता तथा स्वर्ण मानसिकता से ग्रस्त है मीडिया में भी दलितों के विषय को या तो स्पेस नहीं मिलता है या फिर उसे पक्षपाती तरीके से प्रस्तुत किया जाता है पुलिस में भी मामले को रफा-दफा करके टाला जाता है तथा पीड़ित व्यक्ति की रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती है इसी प्रकार से न्यायपालिका में भी पीड़ित के पक्ष में लंबे समय तक न्याय लंबित रखा जाता है तथा दोषी व्यक्ति छूट प्राप्त कर खुला घूमता रहता है जरूरत है की अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम का राज्य में सही ढंग से पालन हो तथा इसे जनचेतना का विषय बनाया जाए और इसके प्रति प्रारंभिक शिक्षा के स्तर से ही लोगों को जागृत किया जाए जिससे कि दलितों पर अत्याचार पर रोक लग सके।