दून पुस्तकालय में हुई असम के साहित्य पर चर्चा

दून पुस्तकालय में हुई असम के साहित्य पर चर्चा

देहरादून,7 मई, 2025.दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की ओर से आज सायं असम: जन, जमीन साहित्य और उनके बीच की बातों पर चर्चा का एक सत्र आयोजित किया गया. क्षेत्रीय साहित्य के अंग्रेजी अनुवाद की श्रृंखला पर बातचीत में यह दून पुस्तकालय का छठा सत्र है. इससे पहले चार प्रमुख दक्षिण भारतीय भाषाओं और एक बंगाली साहित्य पर चर्चा सत्र का आयोजन हो चुका है। भारतीय साहित्य के सम्भवतः सबसे चुनौतीपूर्ण, विविधतापूर्ण असम क्षेत्र का साहित्य तुलनात्मक रूप से ख़ास महत्व कस है. इसमें बहुत मजबूत सामुदायिक जड़ें निहित हैं. रूप, संरचना और विषय-वस्तु में यह एक आकार लेने लगा है.

चर्चा की शुरुआत निकोलस ने पूर्वोत्तर को एक भौगोलिक व सामाजिक इकाई के रूप में देखते हुए इसके भाषाई तत्वों की विविधता व उसकी विशेताओं पर अम्मार नक़वी से सवाल किया. अम्मार ने कहा कि असमिया भाषा की इंडो-आर्यन,तिब्बती-बर्मन,ऑस्ट्रोएशियाटिक और ताई-कदाई की जातीयताओं और भाषाओं के मिश्रण के रूप में इसकी अनूठी स्थिति है. वह किस तरह परतों में मौजूद है और राष्ट्र की कल्पना में इसकी राजनीतिक स्थिति क्या हैं इसके बिंदुओं पर भी बात कही. आदिवासी, अर्ध-आदिवासी और गतिहीन निकोलस के साथ अन्य सवालों में असम के समुदायों और उनकी विशिष्ट साहित्यिक परंपराओं, जैसे बोडो, मिसिंग और नागा पर चर्चा की गयी । अम्मार ने इन जनजातियों के बोडो साहित्य, विशेष रूप से लघु कथाओं को केंद्रित करते हुए बताया कि पूर्वोत्तर क्षेत्र में समृद्ध मौखिक परंपरा रही है, जहां लिपि के बिना भी विकसित भाषाएं और साहित्यिक परंपराएं रही हैं.

सत्र के दूसरा भाग में असम के दो प्रमुख ऐतिहासिक संस्थाओं कामरूप और अहोम की ऐतिहासिक परिवेश में शंकरदेव और माधव की भक्ति परंपरा और बुरिंजी, अंकिया-नाट और बोरगीत जैसी साहित्यिक कृतियों का विस्तृत विवरण और आधुनिक काव्य रूपों पर उनके प्रभाव पर बात हुई। चर्चा में आधुनिक असमिया की चेतना किस तरह उभरी, सिबसागर के अमेरिकी बैपटिस्ट मिशन जैसे मिशनरियों के शुरुआती प्रयास, प्रिंटिंग प्रेस की भूमिका और ओरुनोदोई जैसी पत्रिका ने कैसे प्रकाशित किया उस पर प्रकाश डाला गया. निकोलस से बातचीत के क्रम में असम के लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ, चंद्र कुमार अग्रवाल, हेमचंद्र बरुआ और आनंदराम ढेकियाल फुकन जैसे लोगों के नेतृत्व में असमिया भाषा आंदोलन के शुरुआती संघर्ष की शुरुआत पर भी कई प्रसंग उभर कर आये. रामायण जैसे महाकाव्यों के आधुनिक अनुवादों की भूमिका और जोंकी, बनही और अबाहन जैसी बाद की पत्रिकाओं की भूमिका पर भी विस्तार से चर्चा की गई.

चर्चा के दौरान लघुकथा परंपरा में बिरिंची कुमार बरुआ और सैयद अब्दुल मलिक की कहानी और फकीर मोहन सेनापति और गोपीनाथ मोहंती के समकालीन काम के संबंध में उड़िया और बंगाली लेखन शैलियों के प्रभाव पर भी महत्वपूर्ण चर्चा हुई. बातचीत के अंत में असमिया संवेदनाओं को आकार देने में महिला रचनाकारों के संदर्भ में भी चर्चा हुई.

कार्यक्रम के दौरान शहर के कई साहित्यकार, लेखक, साहित्य प्रेमी, पाठक सहित चंद्रशेखर तिवारी,अरुण कुमार असफल, अपर्णा वर्धन,सुंदर सिंह बिष्ट, जगदीश महर,हिमांशु आहूजा,मेघा विल्सन, कुलभूषण, साहब नक़वी, आलोक सरीन आदि उपस्थित रहे.