अप्रत्याशित परिवर्तन, अनियोजित विकास पहाड़ के सौंदर्य और पर्यावरण के लिए चुनौती
देहरादून,10 जुलाई,2024। दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की ओर से अस्कोट-आराकोट अभियान 2024 में शामिल सदस्यों के यात्रा अनुभवों को जानने-समझने के लिए एक कार्यक्रम किया गया। इसमें यात्रा में शामिल सदस्यों ने अपने अनुभव लोगों के सामने साझा किए।
आज से 50 साल पूर्व 1974 में पर्यवारणविद सुंदरलाल बहुगुणा की पहल पर अस्कोट से आराकोट तक की पहली पैदल यात्रा की गई थी। इस वर्ष 2024 में यह छठी यात्रा थी। 1974 से यह यात्रा हर 10 साल के अंतराल में होती गई। इस यात्रा से अपने पर्यावरण और अपने लोगो के संकट, जन विकास की योजनाओं को समझना है। इसीलिए यह यात्रा हर 10 साल के अंतराल में होती है।
2024 की इस छठी यात्रा में यात्रा दल के सदस्यों ने दून पुस्तकालय एवम शोध केंद्र के सभागार में मौजूद सैकड़ों लोगो के साथ अपने अनुभव साझा किए । यात्रा दल के सदस्यों ने कई चौंकाने वाले अनुभव प्रस्तुत किए है।
यात्रा दल के प्रमुख और वरिष्ठ इतिहासकार प्रो० शेखर पाठक ने अपने अनुभव में चौकानें वाले तथ्य प्रस्तुत किए है। उन्होंने बताया कि 25 साल उत्तरप्रदेश के हिस्सा और 25 साल अलग उत्तराखंड राज्य यानि 50 साल की इन छःह यात्राओं में कई जन संकट सामने आए है। पहली यात्रा में जहां स्कूलों में मात्र गिनती की लड़किंया दिखती थी, अब स्कूलों में यह बड़ी संख्या में स्कूल जाती दिखाई दी है। पिछली यात्राओं में जहां सड़क नहीं थी वहां सड़क तो पहुंच गई, पर जन यातायात की समुचित व्यवस्था अब तक नही बन पाई है। अधाधुंध सड़क निर्माण, जल विद्युत परियोजनाओं ने उत्तराखंड का पर्यावरण ही बदल दिया है, भारी भूस्खलन और जंगलों की आग ने राज्य का बेशकीमती प्राकृतिक संसाधन खत्म कर दिये हैं।
उन्होंने आगे बताया कि गांव-गांव में लोग उदासी में जी रहे है। लोगों को धार्मिकता की झूठी दिलासा दिलाई जा रही है और लोग आपस में बुरी तरह बंट गए है। इन हालातों से राज्य की सांस्कृतिक पहचान खोती जा रही है। प्रो० पाठक ने बताया कि चारधामों में गंदगी का जो आलम देखा वह बहुत ही वीभत्स था। केदारनाथ और यमनोत्री में घोड़ों खच्चरों की लीद ने नदियों के पानी को बहुत प्रदूषित किया है।
उल्लेखनीय है कि लगभग 1150 किमी की लंबी पैदल यात्रा को 45 दिन में पूरा किया गया । इस अंतराल में अस्कोट-आराकोट अभियान के पदयात्रियों ने प्रकृति व संस्कृति,
रोजगार और उद्यमिता,लोक भागीदारी और तीर्थटन, पर्यटन अन्य साहसिक खेल,महिलाओं के स्तर, संसाधन आदि विषयों की पड़ताल की है।चौंदास घाटी के छोटे गांव पांगू के गबला मंदिर से आरंभ हुई यह यात्रा सीमांत जनपद उत्तरकाशी के आराकोट में संपन्न हुई ।
डा० गिरिजा पांडे ने यात्रा का अनुभव बताते हुए कहा कि इस दौरान उन्होंने देखा कि अलग अलग संस्कृतियों ने अपनी विरासत को संजोए रखा हुआ है। यह यात्रा 36 नदी घाटियों से गुजरते हुए लगभग 300 से अधिक गांव तक पहुंची है। देखा गया कि हर नदी पर एक जल विद्युत परियोजना बन रही है। कुछ परियोजनाएं बन चुकी है। पर यह सभी योजनाएं आपदा से जूझ रही हैं। इसके अलावा डॉ. प्रकाश उपाध्याय, जेएनयू की शोधार्थी अंकिता, आसाम से आए अध्येता प्रवेश क्षेत्री, कनिका, डॉ.सुनील कैंथोला आदि यात्रा दल के सदस्यों ने यात्रा के अनुभव लोगो के साथ साझा किए ।
बताया गया कि राजी समाज संकट में है।इनके पास जमीन नही है और न ही कोई पहचान पत्र है। ।यह भी देखा गया कि राज्य बनने के 25 सालों में लोगो की आवाजाही के लिए काली, गोरी, टौंस आदि नदियों पर पुल नही है।
दूरदराज गांव में आज भी रोजगार का अभाव है। पहाड़ की महिलाओं का बोझ आज भी वैसे ही है, सिर्फ काम का तरीका बदला है। ऊंचाई के क्षेत्र में आज भी भेड़ बकरी पालन जिंदा है। आज भी किमू गांव में सड़क नहीं है।
नदियों में गाद भरा जा रहा है। सरे राह पहाड़ में विशालकाय मशीनें बेतरतीब ढंग से निर्माण कार्यों में जुटी है। यहां तक कि अब पहाड़ों पर खनन का कारोबार भी तेजी से बढ़ रहा है। यह सर्वाधिक पिंडर नदी के जलागम क्षेत्र में दिखाई दिया है।
पर्यटन यहां के ग्रामीणों का रोजगार का साधन बन सकता है। बशर्ते यह कार्य सरकार नियोजित ढंग से हो। इसके लिए यहां के लोक उत्सव को पर्यटन से जोड़कर रोजगार के साधन जुटाए जा सकते हैं। गांव में सिर्फ होमस्टे के बोर्ड लगे है, पर वे सभी पर्यटकों के इंतजार में खराब हो रहे है। यात्रा मार्गो पर गंदगी की भरमार है। घोड़े खच्चरों की लीद के लिए कोई निश्चित स्थान उन्हे नही मिला है।
केदार घाटी में 12 हेली एजेंसीयां है। एक ऐजेंसी के पास 15 हेलिकाप्टर है। हर 7 मिनट में एक हेलीकप्टर केदार घाटी में उड़ रहा है, जिससे वायु प्रदूषण भारी मात्रा में बढ़ रहा है।जबकि केदारनाथ वन्य जीव पार्क है।
उत्तराखंड का सबसे सुंदर कर्जन रूट है, जिसे 1903 में बनाया गया था, वह जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहा है।
इस यात्रा में यदि उन्हें थोड़ा आशा की किरण दिखी, तो वह मल्ला दानपुर, पैनखंडा, रवाई आदि क्षेत्रों में। यहां कुटकी और प्याज, राजमा सहित अन्य नगदी फसलों की खेती करते लोग दिखाई दिए हैं। यही वजह है कि इन क्षेत्रों में पालयन शून्य मात्र भी नही दिखा है।
यात्रा दल अपना अनुभव साझा करते हुए बता रहे थे कि पिछली यात्रा यानी 2014 में उन्हे ऊंचाई के क्षेत्रों में लोग झूला घास निकालते देखे गए, जो इस बार नहीं दिखा है। हां इस दौरान की यात्रा में वन हल्दी निकालते लोगों को देखा गया है।
अधिकांश गांव खाली मिले हैं, क्योंकि लोग कीड़ा जड़ी निकालने जा रखे थे, पर वे निराश होकर गांव लौट रहे थे कि उन्हे कीडा जड़ी नहीं मिली है। यानी जलवायु परिवर्तन का सीधा सीधा कारण उनके सामने खड़ा हो गया है। गांव के मकानों को बनाने का बदलता हुआ दृश्य देखा गया है।
रैणी, सिलक्यारा, और श्रीनगर में जगह जगह भारी-भरकम मशीनें विकास का कार्य करते हुए दिखाई दी, जिसके कारण पहाड़ का सौंदर्य कुरूप होता दिखाई दे रहा है।
टिहरी के शिवजनी को लोक कलाकार वाली पेंशन नहीं मिल रही है। यह वही शिवजानी है जिन्होंने वर्ष 1957 में 26 जनवरी को केदार नृत्य की प्रस्तुति गणतंत्र दिवस की परेड में दी थी।
इस अवसर पर पूर्व मुख्य सचिव श्री एन एस नपलच्याल, पीयूष रौतेला,अनूप नौटियाल, हिमांशु आहूजा, राजीव भृतहरि, विनोद सकलानी,जयदेव भट्टाचार्य, चन्दन डांगी, सुरक्षा रावत,डॉ.अतुल शर्मा चन्द्रशेखर तिवारी, कल्पना बहुगुणा, सुंदर सिंह बिष्ट सहित शहर के बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी वर्ग, पत्रकार,लेखक, साहित्यिक प्रेमी व बड़ी संख्या में युवा पाठक उपस्थित रहे।
(रिपोर्टिंग सहयोग : श्री प्रेम पंचोली)